Saturday, April 25, 2009

साई के द्वारे

आप सभी ने सुना होगा कि किसी तीर्थ यात्रा या कहीं दर्शन के लिए जाना ऐसे ही नहीं होता। बुलावा आता है। मैं भी ये मानता हूं और हाल ही में मेरी शिर्डी यात्रा ने मेरे इस विश्वास को और मज़बूत कर दिया। सही में यार कभी कभी आप बनाते रह जाइये प्लान नहीं बनते, और कभी बिना किसी प्लानिंग के ऐसे बढ़िया प्लान बनते हैं कि एकबारगी यक़ीन ही नहीं होता। मैं चार दिन पहले ही ऋषिकेश हो कर आया था, जम के मस्ती कर के, तो कम से कम महीने भर तक के लिए किसी और छुट्टी का ख़याल भी ज़हन में नहीं था। सच में रत्ती भर भी ये दिमाग़ में नहीं था कि तुरंत ही कहीं और निकलने का विचार बनाया जाए। लेकिन अचानक एक के बाद एक चीज़े होती चली गईं, बिना योजना के सब कुछ सुनियोजित तरीक़े से चलता चला गया।

शहर से बाहर जाने के लिए जो जो भी अड़चने आमतौर पर मुझे नज़र आती थीं, वो न जाने कहां ग़ायब हो गईंं। दिक़्क़त, दिक़्क़त ही नहीं रह गई। आपको विश्वास नहीं होगा कि सिर्फ़ एक दिन पहले मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा कि शिर्डी चलना है, और पहली बार बिना एक बार भी विचार किये मेरे मुंह से हां निकल गई। बस अब या तो साईं मेरी हां की लाज रखना चाहते थे, वो चाहते थे कि बच्चा मिलना चाहता है मुझसे तो अब कोई रुकावट न आने दी जाएगी, या पहले से उनकी योजना थी मुझे अपने पास बुलाने की। और जब उनकी इच्छा थी तो किसी की क्या मजाल।

अरे यार सबसे पहले जुगाड़ करना था छुट्टी का, मैं इसी उधेड़बुन में था कि मिलेगी या नहीं, इलेक्शन चल रहा है, ऑफिस में कुछ लोग छुट्टी पर हैं, पता नहीं छुट्टी मिलेगी या नहीं। फिर मैंने साईं पर ही सब कुछ छोड़ दिया। जहां एक एक छुट्टी के लिए दुनिया भर की एडजस्टमेन्ट करनी पड़ती थी, वहां साई दर्शन के नाम पर पहली बार में ही छुट्टी मिल गई। अगली अड़चन थी 10 दिन पहले से तय एक कार्यक्रम जिसे मैं मिस नहीं कर सकता था. सामान्य परिस्थितियों में मेरे मना करने पर मुझे दुनिया भर की बातें सुननी पड़तीं, लेकिन यहां भी साई के नाम पर एक बार में ही काम हो गया, कोई परेशानी नहीं हुई।

दिल्ली से कोपरगांव जाना था। 24 घंटे के आसपास का सफ़र, कोई रिज़रवेशन नहीं, जनरल का टिकट लिया। ट्रेन में घुसने से ठीक पहले टी टी से बातचीत हो गई, पेनल्टी लेकर स्लीपर क्लास में सफ़र करने की इजाज़त मिल गई। डिब्बे में घुसे तो आराम से सीट मिल गई। एक फ़ैमली के साथ एडजस्ट हो गए। रात हुई तो आंटी जी ने बड़ी विनम्रता से अपनी एक पूरी सीट हम दोनों भाइयों को सोने के लिए दे दी। जाने का सफ़र आराम से कटा।

बाबा ने भी पक्का मन बना लिया था कि बच्चे मेरी शरण में आ रहे हैं, सो आने और जाने में कोई दिक़्क़त न होने पाए। साई का हाथ था सो परेशानी होती भी क्यों। शिर्डी दरबार में पंहुच कर जब पहली बार बाबा के दर्शन हुए तो लगा ही नहीं के मैं वहां पहली बार आया हूं। मतलब वहां पंहुच कर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि सब कुछ देखा देखा सा है, और सिर्फ देखा देखा सा क्या, ऐसा लगा की कई बार देखा है. दृश्य इतना शानदार कि साई के चेहरे से, उनके चरणों से, नज़र ही न हटे। मन्दिर में वो भीड़, वो भीड़ कि पैर फ़र्श पर भी नहीं छू रहे थे, लेकिन लोगों के सैलाब में मैं बह कर साईं के ठीक सामने आ गया, कहां मैं प्रार्थना हॉल के कोने में पीछे की तरफ़ खड़ा था और दर्शन मुझे हुए बिल्कुल सामने से। सच मानिये मुझे तो ऐसा लगा कि साईं मुझसे पूछ रहे हों कि शेखर आराम से तो पंहुच गया ना यहां तक। और हाँ... थकान की तो कोई पूछे ही ना, जब यहां वहां रहूं तो बदन टूटे जब मन्दिर में पंहुचुं तो सब थकान ग़ायब। पहले दिन शनि शिंगणापुर भी गया था, घंटो का सफ़र भी किया था, लेकिन कोई अहसास ही नहीं।

आने की बात बताऊं तो वो अनुभव और भी मज़ेदार है, सफ़र के शुरुआती घंटे तो उठते बैठते ही कटे, लेकिन रात को आराम में सीट मिल गई वो भी एक नहीं दो- दो। दोनो जने पसर के सोते हुए घर लौटे। एसी 3 में बिना रिज़रवेशन, बिना दिक़्क़त ऐसे सफ़र कटा जैसे हमने महीनों पहले ही बुकिंग करवा ली हो।

ये सिर्फ़ इत्तेफ़ाक़ तो हो नहीं सकता। जब तक आप के साथ कुछ घटित नहीं हो जाता जब तक आपका विश्वास उस पर नही बनता। मेरे साथ हुआ और मेरा विश्वास पक्का हो गया कि जिस दर से जब बुलावा आता है, तब वहां दर्शन हो ही जाते हैं। कोई लाख रोना रो ले छुट्टी का या फिर दूसरे तमाम कारणों का।

भाई मैं तो इसे साईं का प्यार ही कहंूगा कि उन्होंने मुझे अपना ख़ास बच्चा बनाया और पूरा ख़याल रखा।

ऐसे ही मेले लगते हैं भारत में श्रधा और आस्था के, लोग सैंकड़ों किलोमीटर दूर से दिनों लंबे सफ़र तय करते हैं, महीनों तैयारियां करते हैं, दर्शनों के लिए। ये अपने आप में अनोखा है, इसकी मिसाल दुनिया भर में नहीं मिलेगी।