Tuesday, December 15, 2009

उसका कमरा

तन्हाईयाँ......
और जारी...
किसी की तलाश
अकेलेपन का खौफ
पुरानी मोहब्बत की निशानी
सिगरेट, शराब, कंडोम और वो नोवेल
उसके बंद कमरे की कहानी

चार दीवारें, एक वो
और
रोज़ एक नया चेहरा
वही बिस्तर, वही चादर
आवाज़, बे-आवाज़ एक दूजे से टकराती जवानी
सिगरेट, शराब, कंडोम और वो नोवेल
उसके बंद कमरे की कहानी

कोने की दराज़ में बंद लाल डाइरी
यादों का सैलाब
आँखों को ललकारती तस्वीर
नाराज़ तकदीर
सिसकता मन, छलकता पानी
सिगरेट, शराब, कंडोम और वो नोवेल
उसके बंद कमरे की कहानी

ग़ुस्सा कभी,
और कभी प्यार,
गन्दी गालियाँ तो कभी इंतज़ार,
छत से टकराती चीख,
चीखने की वो आदत पुरानी,
सिगरेट, शराब, कंडोम और वो नोवेल
उसके बंद कमरे की कहानी

मोबाइल स्क्रीन पर
cupid sign का वाल पेपर
फालतू सेंटी मेसेज से भरा इन्बोक्स
गहराता इमोशनल खालीपन
और दिलासे दिलाते
ऑफिस कुलीग के कार्ड
हाय वो किस्सा असफल प्रेम का
उस शर्मीले शख्स की मौन ज़बानी
सिगरेट, शराब, कंडोम और वो नोवेल
उसके बंद कमरे की कहानी

Saturday, April 25, 2009

साई के द्वारे

आप सभी ने सुना होगा कि किसी तीर्थ यात्रा या कहीं दर्शन के लिए जाना ऐसे ही नहीं होता। बुलावा आता है। मैं भी ये मानता हूं और हाल ही में मेरी शिर्डी यात्रा ने मेरे इस विश्वास को और मज़बूत कर दिया। सही में यार कभी कभी आप बनाते रह जाइये प्लान नहीं बनते, और कभी बिना किसी प्लानिंग के ऐसे बढ़िया प्लान बनते हैं कि एकबारगी यक़ीन ही नहीं होता। मैं चार दिन पहले ही ऋषिकेश हो कर आया था, जम के मस्ती कर के, तो कम से कम महीने भर तक के लिए किसी और छुट्टी का ख़याल भी ज़हन में नहीं था। सच में रत्ती भर भी ये दिमाग़ में नहीं था कि तुरंत ही कहीं और निकलने का विचार बनाया जाए। लेकिन अचानक एक के बाद एक चीज़े होती चली गईं, बिना योजना के सब कुछ सुनियोजित तरीक़े से चलता चला गया।

शहर से बाहर जाने के लिए जो जो भी अड़चने आमतौर पर मुझे नज़र आती थीं, वो न जाने कहां ग़ायब हो गईंं। दिक़्क़त, दिक़्क़त ही नहीं रह गई। आपको विश्वास नहीं होगा कि सिर्फ़ एक दिन पहले मेरे दोस्त ने मुझसे पूछा कि शिर्डी चलना है, और पहली बार बिना एक बार भी विचार किये मेरे मुंह से हां निकल गई। बस अब या तो साईं मेरी हां की लाज रखना चाहते थे, वो चाहते थे कि बच्चा मिलना चाहता है मुझसे तो अब कोई रुकावट न आने दी जाएगी, या पहले से उनकी योजना थी मुझे अपने पास बुलाने की। और जब उनकी इच्छा थी तो किसी की क्या मजाल।

अरे यार सबसे पहले जुगाड़ करना था छुट्टी का, मैं इसी उधेड़बुन में था कि मिलेगी या नहीं, इलेक्शन चल रहा है, ऑफिस में कुछ लोग छुट्टी पर हैं, पता नहीं छुट्टी मिलेगी या नहीं। फिर मैंने साईं पर ही सब कुछ छोड़ दिया। जहां एक एक छुट्टी के लिए दुनिया भर की एडजस्टमेन्ट करनी पड़ती थी, वहां साई दर्शन के नाम पर पहली बार में ही छुट्टी मिल गई। अगली अड़चन थी 10 दिन पहले से तय एक कार्यक्रम जिसे मैं मिस नहीं कर सकता था. सामान्य परिस्थितियों में मेरे मना करने पर मुझे दुनिया भर की बातें सुननी पड़तीं, लेकिन यहां भी साई के नाम पर एक बार में ही काम हो गया, कोई परेशानी नहीं हुई।

दिल्ली से कोपरगांव जाना था। 24 घंटे के आसपास का सफ़र, कोई रिज़रवेशन नहीं, जनरल का टिकट लिया। ट्रेन में घुसने से ठीक पहले टी टी से बातचीत हो गई, पेनल्टी लेकर स्लीपर क्लास में सफ़र करने की इजाज़त मिल गई। डिब्बे में घुसे तो आराम से सीट मिल गई। एक फ़ैमली के साथ एडजस्ट हो गए। रात हुई तो आंटी जी ने बड़ी विनम्रता से अपनी एक पूरी सीट हम दोनों भाइयों को सोने के लिए दे दी। जाने का सफ़र आराम से कटा।

बाबा ने भी पक्का मन बना लिया था कि बच्चे मेरी शरण में आ रहे हैं, सो आने और जाने में कोई दिक़्क़त न होने पाए। साई का हाथ था सो परेशानी होती भी क्यों। शिर्डी दरबार में पंहुच कर जब पहली बार बाबा के दर्शन हुए तो लगा ही नहीं के मैं वहां पहली बार आया हूं। मतलब वहां पंहुच कर मुझे ऐसा महसूस हुआ कि सब कुछ देखा देखा सा है, और सिर्फ देखा देखा सा क्या, ऐसा लगा की कई बार देखा है. दृश्य इतना शानदार कि साई के चेहरे से, उनके चरणों से, नज़र ही न हटे। मन्दिर में वो भीड़, वो भीड़ कि पैर फ़र्श पर भी नहीं छू रहे थे, लेकिन लोगों के सैलाब में मैं बह कर साईं के ठीक सामने आ गया, कहां मैं प्रार्थना हॉल के कोने में पीछे की तरफ़ खड़ा था और दर्शन मुझे हुए बिल्कुल सामने से। सच मानिये मुझे तो ऐसा लगा कि साईं मुझसे पूछ रहे हों कि शेखर आराम से तो पंहुच गया ना यहां तक। और हाँ... थकान की तो कोई पूछे ही ना, जब यहां वहां रहूं तो बदन टूटे जब मन्दिर में पंहुचुं तो सब थकान ग़ायब। पहले दिन शनि शिंगणापुर भी गया था, घंटो का सफ़र भी किया था, लेकिन कोई अहसास ही नहीं।

आने की बात बताऊं तो वो अनुभव और भी मज़ेदार है, सफ़र के शुरुआती घंटे तो उठते बैठते ही कटे, लेकिन रात को आराम में सीट मिल गई वो भी एक नहीं दो- दो। दोनो जने पसर के सोते हुए घर लौटे। एसी 3 में बिना रिज़रवेशन, बिना दिक़्क़त ऐसे सफ़र कटा जैसे हमने महीनों पहले ही बुकिंग करवा ली हो।

ये सिर्फ़ इत्तेफ़ाक़ तो हो नहीं सकता। जब तक आप के साथ कुछ घटित नहीं हो जाता जब तक आपका विश्वास उस पर नही बनता। मेरे साथ हुआ और मेरा विश्वास पक्का हो गया कि जिस दर से जब बुलावा आता है, तब वहां दर्शन हो ही जाते हैं। कोई लाख रोना रो ले छुट्टी का या फिर दूसरे तमाम कारणों का।

भाई मैं तो इसे साईं का प्यार ही कहंूगा कि उन्होंने मुझे अपना ख़ास बच्चा बनाया और पूरा ख़याल रखा।

ऐसे ही मेले लगते हैं भारत में श्रधा और आस्था के, लोग सैंकड़ों किलोमीटर दूर से दिनों लंबे सफ़र तय करते हैं, महीनों तैयारियां करते हैं, दर्शनों के लिए। ये अपने आप में अनोखा है, इसकी मिसाल दुनिया भर में नहीं मिलेगी।

Sunday, August 10, 2008

लेट'स बी अ लिटिल रोमांटिक, थोड़ा सा रूमानी हो जायें।


वो बहुत खूबसूरत है, बहुत ही खुबसूरत। वो मुझे बहुत प्यार करती है। कभी कभी मुझे परेशान करने के लिए उल्टे सीधे काम भी करती है, लेकिन वो है बहुत अच्छी। उसका अंदाज़ ही निराला है। वो ताउम्र मेरे साथ रहेगी। वो और मैं एक ही हैं। मैं यानि वो और वो यानि मैं। हम एक दूसरे को बहुत प्यार करते है। हम दोनों में झगडा भी बहुत होता है लेकिन फिर भी हमारी मोहब्बत कम नहीं होती। हर छोटे बड़े खुशी के मौके पर, यहाँ तक की ग़म के मौके पर भी हम एक दूसरे को चूमते हैं। एक दूसरे की बाँहों में सुख और दुःख बांटते हैं। हम दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। मैं ......... और मेरी जिंदगी

Let's be a little romantic. जी हाँ, थोड़ा सा रूमानी हो जायें। आप भी, मैं भी, हम सभी। आख़िर इसमे अपना जाता ही क्या है, बल्कि आएगा ही आएगा। ऊर्जा आएगी, खुशी आएगी, सकारात्मक सोच आएगी और आएगी जिंदगी जीने के लिए नयी उमंगें। बस एक बार रोमांस कर के तो देखो........ किसके साथ.........., अरे यार , ख़ुद के साथ, इस जिंदगी के साथ। बी इन लव विद लाइफ। जस्ट लव इट और फिर देखो कैसे सब कुछ बदल जाता है। अगर आप ने जिंदगी से प्यार कर लिया न, तो समझो पूरी दुनिया आप से प्यार करने लगेगी। कोई ग़म नही रहेगा जिंदगी में। किसी से कोई प्रॉब्लम नही होगी। बिल्कुल सच कह रहा हूँ मैं, चाहे तो एक बार आजमा कर देख लो।

मैं मानता हूँ की जिंदगी हमें एक ही मिली है, आपको भी और मुझे भी, सिर्फ़ एक। और ये कितनी लम्बी है कोई नहीं जानता, न मैं और न आप। जिंदगी चाहे लम्बी हो या छोटी, हमारी है और हमें ही जीनी है। छोटी जिंदगी के लिए किसी से चंद लम्हे उधार नही मिलने वाले और लम्बी जिंदगी के कुछ पल किसी और के खाते नही जाने वाले। जितना टाइम जिस जिस को अलौट हुआ है न उतना काटना ही पड़ेगा, चाहेगा रो कर काटो या हंस कर काटो। खेल कर काटो या सो कर काटो। जो लोग जानते हैं की उनके पास कितना समय है या कितना बचा है उन्हें भी यही करना चाहिए।

जीवन के हर पल का आनंद उठाईये। हर वो काम कीजिये जो आप करना चाहते है, न की वो जो आप कर सकते है, तब तक जब तक की वो किसी और को नुक्सान न पहुँचा रहा हो, दूसरों के दुःख और पीड़ा का कारण न बने। जिस काम को करने में आपको मज़ा आए या जिसे करना आप के लिए एक फंतासी (fantasy ) की तरह है उसे ज़रूर करें। जिन कामों या चीजों से आपको खुशी मिले वो करने में कोई बुराई नही है। बिंदास हो कर उन्हें अंजाम तक पहुँचाओ। ऎसी की तैसी जेब की, सीमाओं की और दुनिया की। दुनिया साली आपको देगी क्या। दुनियावालो का लिहाज़ करके या उनकी बातों पर चल के कुछ हासिल नहीं होने वाला।

ये जिंदगी आपकी है इसे अपने तरीके से जीना होगा अपने अंदाज़ से । मैं तो यही करता हूँ। भाई ये जिंदगी एक नायाब तोहफा है, इसको सहेजना, संभालना आना चाहिए, इसकी इज्ज़त करनी आनी चाहिए। अगर ये रूठ गई ना तो पछताने का मौका भी नही मिलेगा। इस से मोहब्बत कर के इसकी खूबसूरती को देखा जा सकता है और दुनिया और दुनिया वालों की बेरुखी के बावजूद खुश और संतुष्ट रहा जा सकता है। ये आपसे कुछ नही मांगती सिवाय थोडी से चाहत के और उसके बदले ये आपको क्या क्या दे सकती है इसका अंदाजा शायद आपको नहीं है। बस इसे प्यार कीजिये और इसके हो जाइये फिर देखिये न पूरी कायनात आपको खुश करने की कवायद में लग जाए तो।

मेरी माशुका है जिंदगी मेरी,
कभी हंसाती, कभी रुलाती,
कभी बाँहों में खिलाती,
अपने मीठे बोसों से,
मेरा हर दर्द भुलाती,
तमाम दुश्वारियों में भी,
अहसास राहत का कराती,
मेरी माशुका है जिंदगी मेरी।

Monday, July 7, 2008

मन्दिर और मीट

मंडावली फाटक पर बने अंडर ब्रिज के दोनों तरफ़ ( गणेश नगर की तरफ़ ) हर समय लोगों का तांता लगा रहता है। जब देखो भीड़। आपको अपने नम्बर के लिए बहुत देर तक इंतज़ार करना पड़ेगा। दोनों तरफ़ की लाइनों में लगे लोगों के सब्र की तारीफ़ करनी पड़ेगी। कितनी भी देर हो जाए, शान्ति से खड़े रहते हैं और अपने नम्बर का इंतज़ार करते हैं, बिना किसी शिकवा शिकायत के। हर उम्र के लोग, बच्चे, बूढे, जवान, औरतें सभी। बनाने वालों ने भी दोनों जगहें छांट कर बनाई हैं, ठीक एक दुसरे के सामने, सड़क के आर पार। आमतौर पार रोज़ ही दोनों जगह भीड़ रहती है, लेकिन कुछ एक दिन ऐसे होते हैं जब एक का आँगन सूना होता है और एक के आँगन में बहार आई होती है। जैसे मंगल का दिन, एक तरफ़ तो चाहनेवालों का जमावाडा और दूसरी तरफ़ गिने चुने लोग अपनी बारी की प्रतीक्षा में। यहाँ बात हो रही है एक मन्दिर और मीट की दुकान की। हाँ जी, मंडावली अंडर ब्रिज के एक तरफ़ है मन्दिर और दूसरी तरफ़ है मीट शॉप। ठीक आमने सामने। अब मुझे यह ठीक से याद नही है की पहले वहां क्या था, मीट की दुकान या शनि/शिव मन्दिर। लेकिन क्या सही जगह है यार। मीट लेने जाओ अगर मन में श्रद्धा जाग जाए तो मन्दिर में घुस जाओ अगरबत्ती जलाओ, घंटी बजाओ और अगर मन्दिर में पूजा के बाद दांतों में खुजली होने लगे तो मीट की दुकान में चलो, हड्डी फाडो, चमड़ी चबाओ।